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सोमवार, 23 अगस्त 2010

अफसरों की भूख के आगे गरीबी बेबस

पंकज त्रिपाठी, रांची ये गरीब राज्य के अमीर अधिकारी हैं। उनके हिस्से का भी अनाज पचाकर चैन की नींद सोना उनकी आदत में शुमार है, जिनकी पीठ से सटे पेट ने उनकी पंजरियों के बत्ते उभार दिए। गरीबों का पेट भरने के लिए चलाई गई काम के बदले अनाज योजना भी ऐसे अफसरों की भूख का शिकार बन गई। सूखे से जूझते हुए अकाल की ओर कदम बढ़ा रहे झारखंड में फिर इसी तरह की योजनाएं शुरू करने का इरादा है। पता नहीं उनका क्या हश्र होगा। काम के बदले अनाज योजना में हुई गड़बड़ी पर जब राज्यपाल के सलाहकार विल्फ्रेड लकड़ा की नजर पड़ी तब उन्होंने खाद्य एवं आपूर्ति विभाग एवं ग्रामीण विकास विभाग के सचिवों को पीत पत्र लिखकर योजना के तहत आवंटित खाद्यान्न का हिसाब मांगा। सोमवार को जारी किए गए सलाहकार के इस फरमान ने हुक्मरानों की नींद उड़ा दी है। योजना के हजारों मीट्रिक टन अनाज का कोई हिसाब-किताब ही नहीं है। विल्फ्रेड लकड़ा ने अपने पीत पत्र में योजना का तमाम लेखा-जोखा तलब किया है। सलाहकार ने गरीबों की हकमारी को अत्यंत गंभीर माना है। काम के बदले अनाज योजना के तहत संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना में मजदूरों को नगद भुगतान के अलावा एक निश्चित मात्रा में अनाज भी दिया जाता था। वर्ष 2003-07 तक समुचित मानीटरिंग के अभाव में इस योजना का तीस करोड़ रुपये से अधिक मूल्य का अनाज बर्बाद हो गया। योजना के कार्यान्वयन के लिए जिला ग्रामीण विकास अभिकरणों को खाद्यान्न उपलब्ध कराया गया था। उपविकास आयुक्तों को इसका अनुश्रवण करना था। वर्ष 2006 में राष्ट्रीय ग्रामीण सुनिश्चित रोजगार योजना प्रारंभ होने के बाद काम के बदले अनाज योजना बंद कर दी गई। बाद में साहेबगंज, पाकुड़ समेत 26 कार्यान्वयन एजेंसियों के अभिलेखों की जांच के बाद यह साफ हुआ कि एजेंसियों ने खाद्यान्न के वितरण एवं इसे लाभुकों तक पहुंचाने के लिए नियमित अनुश्रवण ही नहीं किया था। इसके कारण आवंटित 30.23 करोड़ रुपये मूल्य के 2681966 मीट्रिक टन खाद्यान्न का दुर्विनियोजन किया गया तथा 18.58 लाख रुपये मूल्य के 153.85 मीट्रिक टन खाद्यान्न बर्बाद हो गया।

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