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सोमवार, 9 अगस्त 2010

किसने डुबाया झारखंड को

ग्लैडसन डुंगडुंग –


झारखंड अपनी स्थापना के 10वां वर्ष पूरा करने जा रहा है। प्राकृतिक संसाधनों से धनी राज्य की यात्रा 15 नवंबर 2000 को 2215 करोड़ रुपये के अतिरिक्त बजट से शुरू हुई थी, लेकिन 10 वषरें का सफर पूरा करने से पहले ही यह राज्य 21,423 करोड़ रुपये के कर्ज में डूब गया है। एक तरफ जहां गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, सड़क, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था नहीं हो पायी है, वही दूसरी ओर उग्रवाद की समस्या 8 जिलों से प्रारंभ होकर पूरे राज्य में फैल चुकी है और भ्रष्टाचार पूरे राज्य को निगलने के साथ-साथ देश और दुनिया में झारखंड को घोटालाखंड के रूप में स्थापित कर दिया है। अब तो हद यह हो गई है कि यहां के नेता चुनाव के समय सिर्फ वोट ही नहीं खरीदते हैं अपना वोट भी करोड़ों रुपये में बेचने लगे हैं। इन नेताओं में आदिवासी नेताओं का शरीक होना सबसे शर्मनाक है। यह अलग बात है कि झारखंड गठन के समय यहां के लोग खासकर आदिवासी एवं मूलवासी लोगों में खुशियों की लहर दौड़ पड़ी थी। सदियों से सामाजिक न्याय से वंचित इन लोगों को आशा की एक नई किरण नजर आने लगी थी। ये लोग पुन: सपने देखना प्रारंभ किये। उन्हें सबकुछ अपना सा लग रहा था। इसकी एक बड़ी वजह थी की सत्ता का केन्द्र पटना से रांची आ रहा था और उसपर यहां के आदिवासी या मूलवासी ही बैठनेवाले थे। शासन का दायरा छोटा हो रहा था जिससे सभी को सामाजिक न्याय मिलने जैसा महौल बनता प्रतीत हो रहा था। झारखंड में आदिवासी व मूलवासी ही सत्ता के केंद्र पर बैठे, लेकिन शासन चलाने का तौर तरीका नहीं बदला। वही सामंतवादी, पूंजीवादी एवं संप्रदायवादी विचारधारा कायम रही। राज्य के गठन के साथ ही सबकुछ ठीक उम्मीद के विपरीत हुआ। वैसा ही जैसा अंग्रजों के भारत छोड़ने के बाद देश ही स्थिति हुई। स्थितियां बद से बदतर हो गई। जो पार्टी झारखंड की सत्ता पर बैठी उसका मुख्य एजेंडा भी गुड गर्वनेंस व विकास था, लेकिन यहां तो बैड गर्वनेंस भी दिखाई नहीं देती है। सवाल उठता है कि क्या यह नेतृत्व का दोष है? कई राजनीतिक नेताओं ने भी सवाल उठाये हैं कि झारखंड की इस स्थिति के लिए आदिवासी नेताओं को जिम्मेदार माना है। उनका कहना है कि आदिवासी नेता राज्य नहीं चला सकते हैं। उनके पास यह क्षमता नहीं है। अगर इस राज्य का नेतृत्व गैर-आदिवासियों के हाथों में होता तो यह राज्य भी छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल की तरह आगे बढ़ गया होता। दूसरा आरोप यह है कि आदिवासी नेता भी अन्य नेताओं की तरह मलाई खाने में व्यस्त रहते हैं तथा उनको अपने ही समाज की चिंता नहीं है। तीसरा, यह कि आदिवासी नेता भी वंशवाद, कुर्सी और निजी स्वार्थ की राजनीति में उतर गये हैं। आदिवासी नेतृत्व पर प्रश्न उठाना लाजमी है। इसके कुछ प्रमुख वजह हैं-1) आदिवासियों ने ही झारखंड राज्य की मांग की थी, लेकिन सबसे ज्यादा लूट उनके ही शासन काल में हुआ। 2) आदिवासी समुदाय अन्य समुदायों से कम दूषित है और आज भी अधिकतर आदिवासी लोग ईमानदार हैं, लेकिन अब उनके ही नेता सबसे ज्यादा भ्रष्ट दिखाई पड़ते हैं। 3) आदिवासी नेताओं ने भी वंशवाद, सत्ता सुख एवं निजी स्वार्थ की राजनीति की। 4) राज्य में अब तक 7 मुख्यमंत्री बने जिसमें सभी आदिवासी थे, लेकिन आम आदिवासियों की स्थिति में काई सुधार नहीं हुआ। 5) आदिवासी समुदाय की आकंाक्षाओं को नजरअंदाज करने वाले आदिवासी नेताओं पर जब भी उंगली उठती है तब वे आदिवासियत की राजनीति कर आदिवासी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने से नहीं हिचकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि झारखण्ड की बदहाली के लिए आदिवासी नेता जिम्मेदार हैं। इतिहास भी यही बताता है कि सत्ता सुख, पैसा और निजी स्वार्थ की वजह से अधिकतर आदिवासी नेताओं की अंतरआत्मा डोल गई। इस मोह में जयपाल सिंह मुंडा, शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी, अजुर्न मुंडा और मधु कोड़ा ने आदिवासियों के साथ-साथ झारखंड का ही लुटिया डुबो दी। झारखंड के उदय से पहले ही अस्त होने की वजह आदिवासी नेतृत्व नहीं है। अगर आदिवासी की जगह गैर-आदिवासी नेतृत्व भी होता तो भी झारखंड का यही हस्त्र होता।

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